50 साल में 1000 से ज्यादा सुरंग खोदकर गाँव में पहुंचाया पानी, मिलिए केरल के ‘दशरथ मांझी’ से।

जुनून और लगन ऐसा पागलपन है जो असंभव को भी संभव कर देता है. आप लोग बिहार के दशरथ मांझी को भूले नहीं होंगे जिन्होंने गांव वालों के लिए पहाड़ काटकर रास्ता बनाया था. अब एक और जुनूनी केरल के 67 साल के कुंजंबु सामने आए है जिन्होंने 1000 से ज्यादा सुरंग खोदकर पानी निकाला जिसका फायदा आज पूरा गांव उठा रहा है. यहां पानी सप्लाई के लिए बोरवेल की जरूरत भी नहीं पड़ती है.

केरल के कासरगोड स्थित कुंदमजुझी गांव के लोगों को पानी उपलब्ध कराने के लिए 67 साल के कुंजंबु 50 साल से सुरंग खोद रहे हैं. उन्होंने बताया कि 14 साल की उम्र में उन्होंने सुरंग खोदना शुरू किया था. देश में अब नाममात्र के सुरंग खोदने वाले कारीगर बचे हैं. कुंजाबू का दावा है कि वह अब तक 1000 से अधिक कुएं जैसी गुफाएं खोदकर पानी निकाल चुके हैं.

कन्नड़ में ‘सुरंग’ या मलयालम में ‘थुरंगम’ पहाड़ियों के पार्श्व पक्षों में खोदी गई एक संकीर्ण गुफा जैसी संरचना है. लगभग 2.5 फीट चौड़ी ये अनोखी गुफा कुएं 300 मीटर तक खोदी जा सकती हैं जब तक कि पानी का झरना नहीं मिलता है. इन गुफा कुओं को स्थायी जल संचयन प्रणाली में से एक माना जाता है. सुरंग में बहने वाले पानी को सुरंग के पास बनाए गए जलाशय में डाल दिया जाता है. एक बार झरनों से पानी स्वतंत्र रूप से बहना शुरू हो जाता है तो बगैर मोटर या पंप के उपयोग के जरिए ताजे पानी की सप्लाई होती रहती है. ऐसा माना जाता है कि इस पद्धति की शुरुआत ईरान में हुई है. हालांकि मौजूदा समय में बोरवेल संस्कृति इन स्थायी जल संचयन प्रणाली के ऊपर हावी हो चुकी है.

कुंजंबु की यात्रा

कुंजंबु कहते हैं कि इस काम के लिए बहुत सारी ताकत और दृढ़ संकल्प की जरूरत होती है. उन्होंने कहा कि वह हमेशा एक कुदाल और मोमबत्ती के साथ इन गुफाओं में एक बार में पूरी खुदाई करने के उद्देश्य के साथ जाते हैं. उन्होंने कहा कि जब आप 300 मीटर गुफा की खुदाई कर रहे होते हैं तो वहां पर ऑक्सीजन का स्तर काफी कम हो जाता है और इसलिए दम घुटने वाली स्थिति से बचने के लिए वह एक माचिस और एक मोमबत्ती भी साथ ले जाते हैं.

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कुंजंबु कहते हैं कि जब उन्होंने इसकी शुरुआत की थी तब सुरंग हमारी संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा था. खासकर कृषि उद्देश्यों के लिए पानी की आवश्यकता के कारण यह अभिन्न अंग था, लेकिन समय के साथ बोरवेल पंप आने लग गए और उन्होंने इस संस्कृति के ऊपर अपना आधिपत्य जमा लिया. साथ ही धीरे-धीरे हमारे यह काम कम होता गया.

बोरवेल का उदय

कुंजंबू कहते हैं जब मैंने सुरंग प्रणाली को विकसित करना शुरू किया था तो या उस वक्त हमारे जीवन का एक जरूरी हिस्सा था. खासकर कृषि उद्देश्यों के लिए लेकिन समय के साथ बोरवेल पंप का चलन बढ़ गया और सुरंग खोदने का काम कम हो गया. वैसे भी आप लोग देखते होंगे कि जब गांव में या खेतों में सिंचाई की जाती है तो अब मिट्टी के पुराने कुएं नहीं मिलते बल्कि बोरवेल पंप का चलन बढ़ गया है और बोरवेल पंप से ही खेतों में सिंचाई की जाती है.

बोरवेल की खुदाई की तुलना में सुरंगों को बनाने में अधिक मेहनत की जरूरत होती है. इस वजह से इसमें खर्च काफी अधिक आता है. कुंजंबू के अनुसार अचानक बोरवेल की ओर स्विच करने का या भी एक कारण हो सकता है नतीजतन इस काम में लगे इन्हें और अन्य लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी.

इनका मानना है कि बोरवेल संस्कृति हमारी प्रकृति के लिए काफी हानिकारक है जब आप बोरवेल की खुदाई करते हैं तो आप धरती के दिल पर प्रहार करते हैं इससे आज भूजल संकट का खतरा बढ़ गया है साथ ही साथ इस से भूकंप का खतरा भी बड़ा है क्योंकि इसमें प्राकृतिक नियमों में बाधा हो रही है.

सुरंग में बहने वाले पानी को एकत्रित करने के लिए नजदीक में ही एक जलाशय बना दिया जाता है जहां पानी गिरता है. एक बार जब झरनों से स्वतंत्र रूप से पानी बहने लगता है तो सालों तक ताजे पानी की सप्लाइ होती रहती है. इसके लिए वॉटरपंप या मोटर की जरूरत भी नहीं होती है. ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत ईरान में हुई है. हालांकि मौजूदा समय में बोरवेल संस्कृति इन स्थायी जल संचयन प्रणाली के ऊपर हावी हो चुकी है.

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