इसतरह से दी पुलवामा के शहीदों श्रद्धांजलि, 40 शहीदों के नाम लगाए 40 हज़ार पेड़

पेड़ पौधे आपको ज़िंदगी जीने की एक वज़ह देते हैं. बहुत ख़ुशी होती है यह देख कर जब आपके छोटे से लगाए हुए पौधे पेड़ बन जाते हैं. ऐसा लगता है जब ख़ुद का बच्चा अपनी आंखों के सामने बड़ा हो रहा हो. वहीं पेड़ हजारों पंछियों को रहने के लिए आसरा प्रदान करते हैं और मन में एक विरह-सी उठती है जब वही पेड़ काटे जाते हैं और वह हजारों पंछी बेआसरा हो जाते हैं. ऐसे ही चिड़ियों के टूटे घोसले और अंडों को देख मन में विरह उठने के बाद दो व्यवसायियों ने पूरा जंगल ही लगाने का फ़ैसला किया.

10 साल पुराने दोस्त राधाकृष्णन नायर और दीपेन जैन पर्यावरण के बहुत बड़े ज्ञाता है. जब इन दोनों ने चिड़ियों के टूटे हुए घोसले और अंडे देखें तभी इन दोनों ने यह फ़ैसला लिया कि इन्हें पेड़ लगाने हैं. अभी तक दोनों दोस्तों ने लाखों पेड़ लगाकर 55 जंगलों का निर्माण किया हैं. अब तो इनके लगाए हुए सारे पौधे पेड़ बन चुके हैं. दोनों दोस्त पर्यावरण, जीवों, जंगलों के संरक्षण को लेकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं.

राधाकृष्णन नायर जिनका जन्म तो केरल में हुआ है लेकिन शुरू से ही उनका पूरा परिवार कर्नाटक में रहता है. कर्नाटक से नायर नौकरी की तलाश में मुंबई गए और उसके बाद गुजरात के उमरगांव और वहाँ जाकर उन्होंने ख़ुद का कपड़े का बिजनेस शुरू कर लिया. वहीं दूसरी ओर दीपेन जैन मुंबई में हीं पले-बढ़े हैं तथा उनका परिवार व्यवसाय से जुड़ा हुआ है. इन दोनों दोस्तों की मुलाकात भी बिजनेस को लेकर ही हुई थी.

ऐसे मिली प्रेरणा

नायर हमेशा से ही सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे हैं. उन्होंने बताया कि कई साल पहले मरगांव के सड़कों को चौड़ा करने के लिए सैकड़ों की संख्या में पेड़ पौधे की कटाई हुई थी. उन्होंने पेड़ पौधों की कटाई रोकने के लिए काफी कोशिश की परंतु कुछ भी नहीं हुआ. 1 दिन नायर कहीं जा रहे थे, उसी समय उन्होंने देखा कि एक चिड़िया सड़क के किनारे घूम रही थी और वह आवाज दे रही थी. चिड़िया की आवाज पर उन्होंने गौर किया तो उन्हें पता चला कि नीचे उसका अंडा टूट गया है.नायर ने बताया कि वह चिड़िया बार-बार ऊपर के पेड़ों पर जाते फिर वापस टूटे अंडे के पास आती उसे देखकर नायर को अनुभव हुआ कि जैसे हम सब से मदद की गुहार लगाते हैं. चिड़िया हमसे पूछ रही थी कि हम ने क्या बिगाड़ा था? वह घटना से नायर बेहद ही प्रभावित हुए थे.

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नायक ने इस आपबीती को अपने मित्र दीपेंद्र जयंत को बताया. उन्होंने भी कहा कि हमें इसके लिए कुछ ना कुछ जरूर करना चाहिए. नायर के दोस्त दीपेंद्र जैन को बिजनेस के सिलसिले में कई बार जापान जाना पड़ता था. वही इन्हें मियावाकी तकनीक के बारे में जानकारी पता चली जिसके द्वारा कम जगह में अलग-अलग पेड़ पौधों को लगाया जाता है. अपने लगाए हुए जंगलों को इन्होंने सघन वन नाम दिया है.

दोनों दोस्त दीपेन और नायर ने इस तकनीक को मियावाकी संस्थान के द्वारा सीखा. उन्होंने सबसे पहले गुजरात के गांव में एक छोटी सी जमीन खरीदी. वहां पर एक मियावाकी जंगल बसाया सिर्फ ढाई सालों में ही अच्छी देखभाल से यह जंगल अच्छी तरह से पनप गया और इस तरह मियावाकी जंगल की सफलता ने पूरे क्षेत्र में इन्हें अलग पहचान दिला दी.इसके बाद से इन दोनों को कई स्कूल, कॉलेजों से प्रस्ताव आने के बाद वहां मियावाकी तकनीकों से पेड़ों को लगाया गया. इन दोनों दोस्तों को अब तो कई इंडस्ट्री से भी ऑफर आने लगे हैं. उसके बाद इन्होंने एनवाईरो क्रिएटर फाउंडेशन बनाया जिसके तहत उन्होंने फॉरेस्ट क्रिएटर्स की शुरुआत की.

40 शहीदों के नाम पर 40 हज़ार पेड़ लगाए

अब तक ‘फॉरेस्ट क्रिएटर्स’ की टीम ने कुल 12 राज्यों में 55 मियावाकी जंगल तैयार कर चुकी है. उन्होंने सारे प्रोजेक्ट को अलग-अलग लोगों के साथ मिलकर किया है. कोई प्रोजेक्ट इंडस्ट्रियल कंपनी के लिए है, वही कई सारे प्रोजेक्ट उन्होंने बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीएसआर की सहायता से भी किए हैं. दोनों ने हाल ही में उमरगांव में एक और नए प्रोजेक्ट को पूरा किया है और उस मियावा की जंगल का नाम उन्होंने “पुलवामा शहीद वन” रखा है जो उन्होंने पुलवामा में शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में लगाया है. उन्होंने 40 शहीदों के नाम पर 40 हज़ार पेड़ लगाए हैं. यानी एक सैनिक की याद में 1 हज़ार पेड़. अब दोनों एक नए प्रोजेक्ट की तैयारी में लगे हैं.

नायर और जैन जिस पौधों को लगाते हैं वह उन्हें ऐसे ही नहीं छोड़ देते, बल्कि 3 सालों तक उनकी बहुत अच्छे से देखभाल करते हैं. उनके सफल होने की दर लगभग 99% है. सबसे पहले जगह का चुनाव करने के बाद यह पता लगाया जाता है कि वह जगह पेड़ लगाने लायक है या नहीं. अगर भूमि बंजर है, तो वहां पर खाद, कृषि अपशिष्ट और केंचुए जैसे सूक्ष्मजीव डालकर उसे उपजाऊ बनाया जाता है. उसके बाद देखा जाता है कि वहां कौन सा स्थानीय पेड़ पौधा लगाया जा सकता है. क्योंकि मियावाकी जंगल तभी सफल होता है जब उस क्षेत्र के स्थानीय पेड़ पौधे वहां लगाया जाए.

पेड़ पौधे लगाने के बाद कम से कम 3 वर्षों तक इन पौधों की सिंचाई करनी पड़ती है. जिसके बाद वह पेड़ सघन वन का रूप लेने लग जाता है. इन पेड़ों के बीच की दूरी कम होने के कारण सूर्य की रोशनी इनके जड़ों तक नहीं पहुंच पाती, जिससे 3 वर्ष के अंदर ही इन पेड़ों के जड़ बारिश के पानी को अवशोषित करना शुरू कर देते हैं .जिसके कारण भूमि भूमि में जल का स्तर भी बहुत बढ़ जाता है.

नायर के अनुसार अगर मियावाकी तकनीक के द्वारा मुंबई जैसे शहर में, जहां जगह की बहुत कमी है वहां छोटे-छोटे जगहों पर यदि पेड़ लगाए जाए तो उससे भी प्रकृति के करीब लाया जा सकता है. उनका कहना है कि 3 वर्षों के बाद इन पेड़ों को किसी देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है.

जैन ने कहा कि मियावाकी तकनीक से लगाए गए जंगल का यह मतलब नहीं है कि आप प्राकृतिक रूप से बड़े पेड़ों को काट दें ‘क्योंकि प्राकृतिक जंगल की किसी भी तकनीक से तुलना नहीं की जा सकती. यदि प्राकृतिक रूप से बढ़े कई साल पुराने 50 पेड़ को काटकर उसके बदले में 1000 मियावाकी वन भी तैयार कर दिए जाए तो यह सही बात नहीं है. प्राकृतिक रूप से उगे हुए पेड़ों को प्रकृति स्वयं देती है उसका उसका मुकाबला कोई भी तकनीक नहीं कर सकता है.

भविष्य के लक्ष्य के बारे में दीपक जैन कहते हैं कि उन लोगों ने 10 सालों में लगभग 100 करोड़ पेड़ों को लगाने का लक्ष्य रखा है. इस मुहिम में ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोगों को जोड़ने की कोशिश की जा रही है और उन्हें फ्री में ही मियावाकी तकनीक का ऑनलाइन प्रशिक्षण भी देते हैं. इस तरह दोनों दोस्तों का पर्यावरण के प्रति लगाव दूसरों के लिए भी प्रेरणा बन चुकी है.

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