नहीं रहें मुलायम सिंह यादव: देखें कैसा रहा पहलवानी से नेताजी तक का सफर, जानें रोचक किस्से

Mulayam Singh Yadav death : राजनीति के युग में खुद को धरती पुत्र के नाम से लोगों के बीच खड़ा करने वाले समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने 83 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा (Mulayam Singh Yadav Death) कह दिया है। मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक सफर (Mulayam Singh Yadav Political Journey) में अपने नाम और काम का परचम कुछ इस कदर लहराया, जिसकी बानगी विपक्षी पार्टियों ने भी मानी। मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर एक अखाड़े से शुरू हुआ और एक पार्टी के संरक्षक के तौर पर वह अपनी अंतिम सांस तक अडिग रहें…

मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर

मुलायम सिंह यादव को बचपन से ही राजनीति की तरफ एक अलग रुझान था, लेकिन उनके पिता उन्हें एक पहलवान बनाना चाहते थे। राजनीति की तरफ रुझान और बचपन से ही सकारात्मक प्रतिभा के धनी मुलायम सिंह यादव पढ़ाई में भी अव्वल रहें। उन्होंने अपने बचपन से ही लोहिया को अपना आदर्श माना था। इतना ही नहीं वह उनके भाषणों को पूरी गहराई के साथ पढ़ते और सुनते थे। वहीं जब भी फर्रुखाबाद में लोकसभा का चुनाव हुआ तो मुलायम सिंह यादव उनके प्रचार के लिए भी आगे आए। ऐसे में उनका राजनीति के प्रति रुझान देखते हुए लोहिया भी उनसे प्रभावित हुए।

लोहिया के साथ शुरु किया था राजनीतिक सफर

मुलायम सिंह यादव ने भी लोहिया के विश्वास पर खरा उतर कर दिखाया और दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के खास को अपने पहले ही चुनावी बिगुल में करारी शिकस्त दी। इतना ही नहीं उन्होंने इस दौरान एक बड़ा रिकॉर्ड भी बनाया, लेकिन कुछ ही समय बाद लोहिया की रहस्यमई तरीके से मौत हो गई, जिसका मुलायम सिंह यादव को बड़ा गहरा सदमा लगा।

जब नेताजी को मिला नन्हे नेपोलियन का खिताब

इसके कुछ समय बाद नेता जी ने देश में किसानों की आवाज बन चुके पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर उनके पद कदमों पर चलना शुरू कर दिया। वह राजनीति के जमाने के एक बेहतरीन सोशल इंजीनियर नेता के तौर पर काफी प्रसिद्ध थे। ऐसे में नेता जी ने उनके साथ मिलते हुए अपने राजनीतिक सफर को एक नए रथ का चढ़ा दिया। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि नन्हे नेपोलियन का खिताब चौधरी चरण सिंह ने ही मुलायम सिंह यादव को ही दिया था।

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इसके बाद जब साल 1980 में वीपी सिंह की सरकार में डकैतों के खिलाफ अभियान चला तब फर्जी एनकाउंटर के नाम पर कई लोगों को निशाना बनाया गया। उस वक्त मुलायम सिंह यादव ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। इसी कारण वह काफी परेशान भी रहे। तब चौधरी चरण सिंह ने उनको दो बड़े पद सौंपे, नेता विपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष… इतना ही नहीं उन्होंने मुलायम सिंह यादव को अपना उत्तराधिकारी भी मान लिया था।

90 में किया समाजवाद को मजबूत

इसके बाद साल 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन की वजह से बीजेपी का सितारा पहले से बुलंदी पर था। बीजेपी के दिग्गज नेता सिंह पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीत चुके थे, लेकिन तभी बीजेपी ने अपने ही पैरों पर एक बड़ी कुल्हाड़ी मारी और एक अनियंत्रित भीड़ ने 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। ऐसा तब हुआ जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वस्त किया कि बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा।

औंधे मुंह गिरी बीजेपी सरकार, तो चल पड़ी साइकिल

लेकिन नतीजे सुप्रीम कोर्ट के आश्वासन के बिल्कुल उलट सामने आए। एक ही झटके में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार औंधे मुंह गिर गई। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया। केंद्र सरकार कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करती इससे पहले ही कल्याण सिंह खुद इस्तीफा देकर अपना पद छोड़ चुके थे, क्योंकि जिस तरीके से सरकार गिरी वह वर्तमान विपक्षी दल समाजवादी और अभी मजबूती से अपने राजनीतिक पकड़ को बनाने में और तैयार हो गए थे। हालांकि इस दौरान बहुजन समाज पार्टी के पास भी मौका था कि वह किसी तरीके से बीजेपी को दोबारा रोक सके और यह सपना साकार भी हुआ। बीएसपी और समाजवाद को उस दौरान के मशहूर उद्योगपति जयंत मल्होत्रा ने दोनों को मिलवाया।

संजय डालमिया ने निभाई महत्वपूर्ण भूमिका

इसके बाद इस मामले में एक और उद्योगपति का नाम सामने आया, यह नाम था संजय डालमिया का…. जिन्होंने इस समझौते को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संजय डालमिया को मुलायम सिंह यादव का बेहद करीबी कहा जाता था। कहा जाता है कि इन दोनों उद्योगपतियों के आपस में पारिवारिक संबंध थे और वह दोनों एक-दूसरे को बेहद करीब से जानते नहीं थे। ऐसे में उन दोनों परिवार का यह रिश्ता इस गठबंधन के बेहतर नतीजे पर पहुंचने में सफल रहा। हालांकि इन दोनों उद्योगपतियों को इसका इनाम यह मिला कि दोनों राज्यसभा में पहुंच गए।

काशीराम के साथ नेताजी के संबंध

इस गठबंधन की शुरुआत पहले ही हो गई थी जब कांशीराम ने इटावा लोकसभा और मुलायम सिंह यादव ने जसवंत नगर विधानसभा जीतने के लिए एक-दूसरे की मदद की थी। इटावा का चुनावी परिणाम मुलायम सिंह यादव और काशीराम के बीच मौन सहमति का नतीजा निकला। दोनों ने मिलकर दलितों, पिछड़ी जातियों, मुस्लिमों का हिंदूवादी ताकतों के खिलाफ गठबंधन बना रहे थे, क्योंकि 1990 के गोली कांड में मुलायम सिंह यादव को एक हिंदू विरोधी और मुस्लिम हितैषी नेता के तौर पर काफी ज्यादा प्रसिद्धि मिली थी। इस दौरान उनका नाम मुल्ला मुलायम के नाम से मशहूर हो गया था।

पहलवान बनाना चाहते थे पिता लेकिन बेटे बने नेता

मुलायम सिंह यादव के पिता सुधर सिंह उन्हें पहलवान बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने काफी जोर आजमाइश भी की। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव को उनके पिता ने जहां पहलवानी के गुण सीखने भेजा, वहीं से उन्होंने पहलवानी के साथ-साथ राजनीति के गुर भी सिखें। इस दौरान उन्होंने नत्थू सिंह को अपना राजनीतिक गुरु बनाया। नत्थू सिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती प्रतियोगिता में मुलायम सिंह यादव ने काफी प्रभावित किया और यहीं से उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत हुई।

यह बात बेहद कम लोग जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव उस वक्त के दिग्गज पहलवान गामा पहलवान के साथ भी मैदान में दो-दो हाथ कर चुके थे। चांदीराम से उन्होंने कुश्ती के गुण सीखे थे और धोबी पछाड़ की बदौलत उन्होंने अपने राजनीतिक दंगल में अपने प्रतिद्वंद्वियों को समय-समय पर चित और मात के खेल को समझाया। भारतीय राजनीति में नेताजी के रूप में पहचाने गए मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर लंबा और बुलंदियों से भरा रहा।

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