आनंद मोहन: किसी फिल्म से कम नहीं रंगदारी से राजनीति का सफर, इस तरह फांसी पर लटकने से बच गए

Bahubali Anand Mohan Life Story: पूर्व सांसद बाहुबली आनंद मोहन देश के इकलौते ऐसे नेता है, जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी। हालांकि ऊपरी अदालत ने उनकी इस सजा को आजीवन उम्र कैद में बदल दिया और यही वजह है कि 2 महीने पहले वह अपनी बेटी की शादी और अब अपने बेटे की शादी में शामिल हो पा रहे हैं। ऐसे में अगर ऊपरी अदालत उनकी फांसी की सजा को आजीवन उम्र कैद में नहीं बदलती तो आज वह अपने परिवार और अपने बेटे की इन खुशियों में शरीक नहीं हो पाते।

जेपी आंदोलन से शुरू हुई बाहुबली आनंद मोहन की कहानी

आनंद मोहन का रंगदारी से राजनीति की ओर कदम रखना इतिहास के पन्नों से जुड़ा हुआ है। दरअसल जेपी आंदोलन के दौरान आनंद मोहन छात्र राजनीति से जुड़े हुए थे। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में शुरू हुए आंदोलन के समय कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। तब उन्होंने पढ़ाई छोड़कर जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया। यहीं से उनके राजनीतिक रुझान का सफर शुरू हुआ। वहीं इसके बाद जब देश में सबसे बड़ी इमरजेंसी लगी, तो छोटे बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई आनंद मोहन भी इसके चपेट में आए लगभग 2 साल उन्हें जेल में गुजारने पड़े।

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20 साल की उम्र में राजनीति करने लगे थे आनंद मोहन

बाहुबली आनंद मोहन का राजनीति से गहरा नाता है। दरअसल उनके दादा स्वतंत्रता सेनानी थे। वही राजनीति की दुनिया में जब उन्होंने कदम रखा तो वह महज 20 साल के थे। 70 के दशक की राजनीति के दौरान सिर्फ दो ही बातों को अनिवार्यता दी जाती थी, पहला दबंग और दूसरा जातीय समीकरण…। ऐसे में आनंद मोहन ने जातीय समीकरण को सीढ़ी बनाया और आरक्षण विरोधी होने के कारण वह राजपूत समाज के साथ स्वर्णों के दबंग नेता बनकर उभरे कुछ ही समय में आनंद मोहन का नाम लोगों की जुबान पर चढ़ गया।

आलम यह था कि आनंद मोहन की गिनती दबंग नेताओं में की जाने लगी थी। हालांकि उनके कारनामों के चलते उनकी गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा भी की गई, लेकिन इसी दौरान लोकसभा चुनाव आ गए और वह चुनावी मैदान में कूद गए। हालांकि उन्हें जीत हाथ नहीं लगी। साल 1983 में पहली बार एक मामले में उन्हें 3 साल की सजा हुई। ये 80 के दशक का वह दौर था, जब बिहार की राजनीति में आनंद मोहन के अलावा  अनंत सिंह, सूरजभान सिंह, सुनील पांडे, पप्पू यादव, रामा सिंह जैसे लोगों ने कदम रखा।

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जब मोरारजी भाई को काला झंडा दिखाने पहुंच गए आनंद मोहन

इन सभी के बीच सबसे बड़ी कॉमन बात यह थी कि यह सभी अपराध की दुनिया से जुड़े हुए थे। सभी को दबंग नेता माना जाता था। 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई को उनके भाषण के दौरान आनंद मोहन ने काला झंडा दिखाया। इसके बाद साल 1980 में आनंद मोहन ने समाजवादी क्रांति सेना बनाई और एक ऐसे संगठन का गठन किया, जिसमें ज्यादातर लोग राजपूत समाज से थे और यहीं से आनंद मोहन का नाम अपराध की दुनिया में गूंजने लगा।

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इसके बाद हथियारों से लैस लाव लश्कर के साथ चलना आनंद मोहन की जिंदगी का हिस्सा बन गया। आनंद मोहन से बाहुबली आनंद मोहन बने, तो राजपूत समाज में उनके अपराध को जहां अनदेखा किया जाने लगा तो वही नेताओं में अब उनका डर बैठने लगा। राजनीति की दुनिया में आनंद मोहन और पप्पू यादव के बीच की तू-तू, मैं-मैं किसी से छुपी नहीं है। दोनों के बीच जुबानी जंग के साथ-साथ खूनी खेल भी हुआ है। कोसी अंचल में हुई हत्याओं का जिम्मेदार भी इन्हें ही मारा जाता है।

आनंद मोहन ने जब राजनीति की दुनिया में कदम रखा तो उनका सबसे पहला हथकंडा आरक्षण का विरोध करना ही था। वहीं दूसरी ओर जनता दल पार्टी इसके समर्थन में थी इसलिए आनंद मोहन ने पार्टी से अपनी राहे बेहद कम समय में ही अलग कर ली। उन्होंने साल 1993 में अपनी पार्टी बिहार पीपल्स पार्टी का निर्माण किया। बाद में जब समता पार्टी बनी तो आनंद मोहन ने उनका हाथ थाम लिया। साल 1995 में आनंद मोहन की पार्टी ने नीतीश कुमार की समता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था। हालांकि इस दौरान जब 3 सीटों से चुनाव लड़ने के दौरान हार गए तो इसके बाद 1996 में उन्होंने लोकसभा चुनाव जेल से ही लड़ा और जीत भी गए।

इसके बाद 1998 में लोकसभा चुनाव में उन्होंने दोबारा जीत दर्ज की। इस दौरान आनंद मोहन कई बार कई अलग-अलग पार्टियों से नजदीकी बढ़ाते नजर आए। कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस के करीब आए, लेकिन उसके बावजूद भी उनके राजनीतिक सफर के उतार-चढ़ाव खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे।

डीएम जी कृष्णैया हत्याकांड ने पहुंचाया फांसी के फंदे तक

बाहुबली आनंद मोहन अपराध की दुनिया में अपने नाम को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहे। इस दौरान उन पर सबसे संगीन अपराध गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया की हत्या का लगा। इस मामले में उन्हें निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई ऐसे में वह आजाद भारत के पहले ऐसे नेता बने जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। इसके बाद इस फैसले को चुनौती देते हुए ऊपरी अदालत में दोबारा सुनवाई हुई, जहां उनकी फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया।

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6 महीने में 3 बार आये पैरोल पर बाहर

तब से लेकर अब तक आनंद मोहन जेल में है। बीते 6 महीने में आनंद मोहन तीन बार पैरोल पर छूट कर बाहर आ चुके हैं। 2 महीने पहले अपनी बेटी सुरभि आनंद की पहले सगाई और फिर शादी शादी में 15-15 दिनों की पैरोल पर बाहर आए थे। वही अब वह अपने बड़े बेटे चेतन आनंद की शादी में शामिल होने के लिए पैरोल पर आए हैं।

जब सपांदक को ठोकने पहुंच गए उसके दफ्तर

आनंद मोहन के कारनामों का कच्चा चिट्ठा यहीं खत्म नहीं हुआ। ये किस्सा साल 1996 का भी है, जब रांची-पटना से निकलने वाले एक अखबार में किसी छोटे नेता ने आनंद मोहन के विरोध में एक विज्ञप्ति भेजी थी। विज्ञप्ति किसी नेता की थी इसलिए खबर छपने के बाद आनंद मोहन गुस्से में आ गए और अपने लाव लश्कर को उठाकर सीधे अखबार के दफ्तर पहुंच गए। ये वो वक्त था तब वह शिवहर से सांसद हुआ करते थे। दफ्तर में घुसने के बाद उन्होंने सीधे संपादक की तलाश करना शुरू कर दिया, लेकिन बाहर दूसरे अखबारी कर्मचारियों ने उनके गुस्से को पहले शांत कराया। वहीं जब शांत होने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि संपादक पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के करीबी हैं, जिनको वह खुद ही अपने गुरु मानते थे। ऐसे में शांत होने के बाद वह खुद संपादक के पास माफी मांगने पहुंचे।

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