कैसे सुखविंदर कौर बन गई राधे मां? क्या है हाथ में त्रिशूल रखने के पीछे का राज!

क्या आप जानते हैं राधे मां हैं कौन? लाल जोड़े, माथे पर लंबा टीका और हाथ में त्रिशूल लेने वाली सुखविंदर कौर राधे मां कैसे बनी? तो चलिए आझ हम आपको बताते हैं कि 23 साल की शादीशुदा लड़की कैसे आध्यात्म से जुड़ी और बन गई राधे मां।

कौन है राधे मां?


राधे मां एकआध्‍यात्‍म‍िक गुरु हैं, जो खुद को देवी का अवतार बताती हैं। हाथों में त्रिशूल, सुर्ख लाल रंग का जोड़ा, लाल लिपस्टिक, बालों में गुलाब का फूल लगाए हुए राधे मां का पहनावा भी सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचता हैं।राधे मां’ उर्फ सुखविंदर कौर 4 अप्रैल 1965 में गुरसापुर के दोरांगला गांव में पैदा हुई। 17 साल की उम्र में ही पंजाब के एक हलवाई के बेटे मोहन सिंह से उनकी शादी हो गई। शादी के बाद राधे मां के पति कतर में नौकरी करने के लिए चले गए।

तब सुखविंदर कौर यानी राधे मां के परिवार की स्‍थ‍िति अच्‍छी नहीं थी। बताया जाता है कि वह लोगों के कपड़े सिलकर अपनी रोजी रोटी कमाती थीं। 21 साल की उम्र में सुखविंदर कौर ने महंत श्री रामदीन दास से 6 महीने तक दीक्षा ली। आध्यात्म की दीक्षा के बाद रामदीप दास ने ही सुखविंदर को नया नाम दिया और वह राधे मां के नाम से जानी जाने लगीं।

हाथ में त्रिशूल क्यों रखती है सुखविंदर कौर उर्फ राधे मां?

इंडिया न्यूज के रिपोर्टर ने जब राधे मां से पूछा कि अपने हाथ में त्रिशूल क्यों रखती है तो उन्होंने कहा कि त्रिशूल धर्म का प्रतीक है और मैं धार्मिक महिला हूं मैं खाली हाथ चलूंगी तो लोगों को कैसे पता चलेगा कि मैं कौन हूं! त्रिशूल मेरी पहचान है कि मैं धार्मिक महिला हूं। यह त्रिशूल लकड़ी का है।

किस देवी देवता को मानती हैं राधे मां?

जब दूसरे सवाल में उनसे पूछा गया कि आप किस देवी देवता की पूजा करते हैं तो राधे मां ने कहा- बचपन में मैं गुरु नानक देव जी के गुरुद्वारे जाती थी और काली माता के मंदिर जाती थी। दुर्गा माता को अपनी मां मानती हैं और भगवान शंकर की पूजा करती हूं। भगवान शिव को अपना इष्ट मानती हूं।

राधे मां। खुद को जीता-जागता धर्म बताती है, सत्संग करती है, भक्तों को लाल गुलाब बांटती है। लेकिन फिल्मी गीत पर इठलाते हुए फुदकती भी है। कभी शिव-शंकर भोले की नकल में हाथ में त्रिशूल थामना, तो कभी मिनी स्कर्ट और बूट पहन कर उन्मुक्त भाव से मादक तस्वीरें खिंचवाना। कभी अपने भक्तों को खुद को गोदी में उठाने का प्रसाद देना। न तो ये धर्म है, न प्रभु माया है, न भक्ति है, न शक्ति है। लोगों की मानें तो ये विशुद्ध आसक्ति है।

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